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( १३७) ॥ढाल एकवीशमी॥धिग धिगधणनीप्रीतमीए देशी
॥नरराज अति चिंता करे, मनमा पोषी दाह ॥ वर कन्या बिहुँ किहां गयां, ए तो अचरिज रे दीसे जगनाह ॥१॥ नूपति त्रटकीने कहे, कुंण जाणे रे एह अकल सरूप ॥ जोयां पण लाधां नहीं, थयुं होशे रे कांश विपरिय रूप ॥ नू० ॥२॥ किहां नगरी चंडावती, किहां नगर पोहवीगण ॥ किहां कन्या महाबल किहां, एतो विन्रम रे रचना अहिनाण ॥नू ॥३॥ अथवा दैवें बेहुनो, संयो ग इंम किम कीध | इंग्रजाल परें कारिमो, देखामी रे किम जमपी लीध || नू० ॥४॥ तुज चित्तमा एहवं हतुं, करवं दैव अनिष्ट ॥तो मूलथकी परग ट करी, क्यां पाड्यो रे एह माहारी दृष्ट ॥ नू० ॥ ॥५॥नवि दी, जोजन नबुं, नहीं दी, लीधउ दालि ॥ मणि हीऍ नूषण जडुं, पण पमि रे जश मणि ते टालि ॥ ॥ ६॥ हण्या पुष्ट किण व री, अथवा निरुध्यां केण ॥ के किण देवें अपह स्वां, दंपती दोश् रे श्राव्यां नहीं तेण ॥ नू० ॥ ॥ ७॥ रूप करी महाबल तणुं, आव्यो हतो कोई चोर ॥ परणी निज देशे गयो, मुज कन्या रे काल
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