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(१३७) मणां ॥ मानत किम शकीयें गमी ॥॥मान्या होय जे देव तणा ॥१७॥ईम कही चाख्यो तिहां थकी ॥गु०॥राति समय देवी जुवनें॥वारी पण नविरही शके ॥०॥मलया साथें हुई सुमनें॥१॥ बीजे खमें वीशमी ॥ गु०॥ ढाल नली अति सरस रसें॥ सुणतां श्रोताने गमी ॥ ज०॥ कांति कहे मनने हरसें ॥२०॥
॥दोहा॥ ॥साम दाम दंमें करी, वीरधवल नूपाल ॥समजा व्या नरपति घj, पण समजे नहीं हगल ॥१॥ तेह कहे परजातमां, मारी तुज जामात ॥ कन्या खेश् चालशु, तुं न करे अम तात ॥२॥ वचन सुणि नूपति चक्यो, आवे जुवन विचाल ॥ साज करावे करह लि, संप्रेमण वर बाल ॥६॥ चुप करावण श्रा विर्ज, वर कन्या नवणेद ॥ दीठा नहीं पूज्युं तदा, वेगवती कहे तेह ॥४॥ बेठगे जोवे वाटमी, नूपति करतो चिंत ॥रात पमी तव जिहां तिहां, शोध्यां पण न मिलंत ॥५॥खबर लह। नृप नंदनां, कटक गयां परनात ॥आव्या तिम निज निज पुरे, विलख वदन विरचात॥६॥जामाता कन्या तणी किहां न लही नृप सूज॥ःखियो नूपति चित्तमां, चिंते एम अमूंज ॥७॥
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