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(१३५) मत्या नाग्यथकी ॥ काम करे शुं ए वही॥ उजमंता जी, अरथे अवसर एह तकी ॥ १॥गुण करतां गुण कीजीयें ॥ गु० ॥ एहमां पाम न कोई हां॥कहोतो काढी दीजीयें ॥ ज० ॥ जीव सरखो काज जीहां ॥२॥ जीवजीवातन सारीखो ॥ गु० ॥ ते जातां होय पुःख घणो ॥ पोतावटीतुं पारिखं ॥ ज० ॥ लहीयें अर्थ सरे बमणो ॥३॥ श्म कही ते थया एकगं ॥ गुण ॥धन दाटी तेह सिंधुतमें। उपामली सामटा ॥ ज० ॥ थंन तिहांथी एक धमें ॥ ४ ॥ ते पूंजें हुं चालियो ॥ गुण ॥ पूरव पोल समीप गया ॥ बंबित थल देखामियो॥5॥ते तिहांमूकी निचिंत थया ॥५॥ में जाएयो जो गोपव्यो । गु० ॥देखाउँ ते चोर हवे ॥ तो ए टोलो कोपव्यो॥॥धन लोनें तस लोही पीवे ॥ ६॥ श्म धारी अंतर वटें ॥ गुण॥ उत्तर कूड़ें एम कडं ॥ लोन वशे तेणें चोरटे ॥3॥ तालुं ऊघामी अव्य ग्रथु ॥७॥गोला सिंधु प्रवाहमां ॥ गु० ॥ तरती मूकी मंजूष सुखें ॥ तेह उपर चढी राहमां ॥ उ०॥ नदीयें थई ए जाय मुखें॥७॥ दी वा में सघली परें ॥ गु०॥ पासें ऊले चरित्त घणां ॥ चोर सहु श्म उच्चरे ॥ ७० ॥ साच चरित ए चोरत
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