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निरखुं बेठो गुज ॥ मृ० ॥ प० ॥ ऊवट वाटें आ वती ॥ ० ॥ नजरें पकी तुं मुझ ॥ मृ० ॥ १५ ॥ पि० ॥ वरुतरुथी हुं ऊतरस्यो । हुं० ॥ साहामो श्र व्यो दोम ॥ मृ० ॥ पि॥ बेहुं मल्यां ए माहरी ॥ मा० ॥ वात कही बल बोम ॥ मृ० ॥ १६ ॥ प० ॥ बीजे खं शोलमी ॥ शो० ॥ ए थई निरुपम ढाल ॥ मृ० ॥ पिं० ॥ कांति कहे मलया हवे || म० ॥ कहेशे वात रसाल ॥ मृ० ॥ १७ ॥
॥ दोहा ॥
कुमर जणे में जुगतिशुं, जांख्यो मुज विरतंत ॥ तुं पण कड़े ताहरो हवे, मूलथकी जिम हुंत ॥ १ ॥ ते कहे तुम शिक्षा ग्रही, पेठि हुं पुरमांहिं ॥ पुरुष वे ष मगधासदन, पुढं पग पग बांहिं ॥ २ ॥ घर न मली पुरमां जमी, किहां न दीवी स्वाम ॥ बेठी देव ल एकमां, दीवी मगधा नाम ॥ ३ ॥ नाखी वांके फांकने, धूरत एकें धूत || जावा लाग लड़े नहीं, रो की सबल कुसूत ॥ ४ ॥ कारण में पूठ्या थकी, वो ली करती रींग ॥ अहो सुगुण मुज पाढले, वलगो बे एक विंग ॥ ५ ॥ धूरत एह पूंठे पड्यो, लंघावे बे मुद्र ॥ क्षण क्षण थर विरु नये, गूमम जेम रु
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