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(१०) षणेजी ॥ सुतरु मोहन वेलि, सरिखां दीसे बिहुँ नि ईषणेजी॥१॥ वाजे चुंगल नेरि, ताल कंसाल न फेरी नादशुंजी ॥शणगास्या गजराज, बागल चाले अति उनमादझुंजी ॥२॥चामर बत्र ढलंत, फरह रते केसरीये वाघे सज्योजी ॥ निरुपम थाप्यो मोम, श्रीफल करमां सुंदर राजतोजी ॥३॥ कुंकुम तिल क बनाय, तंकुल जालें चोट्या उजलाजी। परवरिया घमसाण, तोरण आव्यो वर वधती कलाजी ॥४॥ मोती थाल वधाव, पधराव्या वर कन्या चोरीयेंजी॥ नट्ट जणे जयमाल, सोहला गाया सरलें गोरीयें जी॥५॥ ब्राह्मण नणते वेद, पंचामतना होम ति हां कीयाजी॥चारे चोरी अंग, दीपे जिम पुरुषारथ वीटीयाजी ॥६॥ बिहुंना नेहमा बांध, चारे फेरे में गल वरतियांजी ॥प्रीति जिस्या सुसवाद, सार कंसा र तिहां आरोगीयांजी ॥७॥ विधिपूर्वक कमनीय, पाणी ग्रहण महोत्सव तिहां कियोजी ॥ नृप रा णी आशीष, वचन श्स्यो अति हेजें उच्चस्योजी ॥७॥ चंडिका चंड समान, अविचल होजो तुमची जोग लीजी॥ हयगयरथ धन कोमि, करमोचन वेलायें दे जलीजी॥ए॥वरकन्या मन रंग, मोहलामांहे तिहां
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