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(२०)
क तणी, मर राखे हो सघले संसार के ॥ तो किम कुं वरी हुं वरुं, उठी जावे हो जेह बे व्यवहार के ॥ कुं० ॥ ॥ ६ ॥ जो नृप जाणे वातडी, घडि एकमें हो नाखे तस वेर के ॥ सबल कुटुंब जे पलकमें, लुसी मूके हो तेहमें नही फेर के || कु० ॥ ७ ॥ तो किम वात ए हुं करूं, कुल लाजे हो निज तातनुं जेह के ॥ मुऊ घ रमें बे पदमणी, किम देहुं हो तेहने हुं बेह के ॥ ८ ॥ कुं० ॥ कडुवां फल बे एहनां, परनारी हो साथै घरे राग के || पग पग दोष लहे घणो, नवि पामे हो कि हां बेठानो जाग के ॥ ए ॥ कुं० ॥ किंपाकनां फल सारिखां, देखतां हो घणुं फूटडां जोर के | पण ते फल चाख्याथकी, जीव पामे हो मरणांत कठोर के ॥ १० ॥ कुं० ॥ जगमें चाले वातडी, करे हासी हो सहु मलीने लोक के | जिन वचनें पण जाणीयें, दुर्गतिनां हो फल पामें रोक के ॥ ११ ॥ कुं० ॥ राव ए मुंऊ तणी परें, शीश रडवडे हो भूमितलें जेह के ॥ परनारीना संगथी, बीजानी हो गति निपजे एह के ॥ १२ ॥ कुं० ॥ इम जाणी मन वालियुं, व्यवहारी हो निज कुल संभाल के || तिहां जावुं नही माहरें, जिहां कीधो हो संकेत विशाल के ॥ १३ ॥ कुं० ॥ हवे
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