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(१७) सू० ॥ रजनी मध्य गई तिहां रे, हरिबल सूतो ज्यां ह॥ तिण अवसरें जे नीपजे रे, ते सुणजो उन्हाह ॥सू० ॥ २७ ॥ चोथी ढाल पूरी थई रे, प्रगटी पु एयनी वेल ॥ लब्धि कहे गुरु देवथी रे, नाखीयें कुखने तेल ॥ २७ ॥ सू० ॥
॥-दोहा सोहरिबल
॥ हवि तिण नगरीमा वसे,बीजो हरिबल नाम ॥ वडवखती सुखीयो सदा, व्यवहारी अनिराम ॥ १॥ पठित गुणित सघली कला, शीख्यो रे सावधान ॥ रूपें रतिपति सारिखो, उपे रूप निधान ॥ २ ॥ च तुरा तो चकोर ज्यु, कंठे कोकिल कंठ ॥ जोगी केत की बंग ज्युं, वाको वंस निगंठ ॥३॥ इक दिन चढ़ टे संचयो, लेइनिज परिवार ॥ नजरें हरिबल निर खियो, कुमरीयें गोख मकार ॥ ४ ॥ वसंतसिरी नृ पनी धुश्रा, उत्लखी हरिबल तेह॥ बिहुँनी दृष्टि मिली तिहां, वाध्यो नवलो नेह ॥ ५ ॥ कुमरीनुं मन वेधि युं, देखी हरिबल रूप ॥ कामातुर अतिही थई, वर वानी थइ चूंप ॥ ६ ॥ राजनुवनने मारगें, हरिबल चाल्यो जाय ॥ गोखतले आव्यो जिसे, खिए एक तिहां विलमाय ॥ ७ ॥ गोखेंथी पत्री लखी, पडती
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