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( १७३ )
॥ श्रथ चतुर्थ वल्लासः प्रारभ्यते ॥. ॥ दोहा ॥
॥ शांति सुधामय चंद ज्युं, सोहे शांति जिणंद ॥ दुःख तिमिर दूरें हरे, देवे मन सुख वृंद ॥ १ ॥ तस पदपंकज हुं नमुं, नित्य नठी परजात ॥ केवल कमला पामियें, देखियें विश्व विख्यात ॥ २ ॥ सुखदायी वर सरसती, वरसति वचन विलास ॥ कविजन घटमें चंद ज्युं, करती बुद्धि प्रकाश ॥ ३ ॥ ते बाला त्रिपुरा नमुं, विनवुं बे कर जोडि ॥ मुफ मन मंदिरमें बसी, पूरो वंबित कोडि ॥ ४ ॥ कोविद केशर अमरना, चरण कमल नमि तास ॥ हरिबल मी रायनो, प नणं चोथो उल्लास ॥ ५ ॥ वेधक रसिया जे दुवो, ते सुजो इक मन्न ॥ हरिबल गुण सुणतां थकां दोवे पावन कन्न ॥ ६ ॥ दवे नृप जाणे मन्नमें, दरिबल की बार ॥ काढयुं राज्य जीवित लगें, उपनो दर्ष अपार ॥ ७ ॥ दो नारी मुऊ अपबरा, प्रनुयें दीधी हुब || तो हुं जइ सफलुं करूं, मुऊ जीवित सुकयत्र ॥ ८ ॥ इम जाणी ते सज थयो, मदनवेग ते राय ॥ वज्री सम ते नृप थयो, चूवा चंदन लगाय ॥ ए ॥ को नवि जाणे राजमें, तिम चाल्यो घरी धारा ॥ रज
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