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(१४४) ॥ हां०॥ जशपडही वजडावियो, नगरीमांहे विख्या त॥ मो० ॥ वातडी चाली चिढुं दिशें, दरिबल केरी ख्यात ॥ मो० ॥सा ॥ १५ ॥ हां ॥ हवे सुपजो रसीया तुमें, जमता जे थ वात मो० ॥ नृपने प्रिसवा नारी दो, भावी शोनित गात ॥मोसा ॥ २० ॥ हां ॥ नृप जमतां नूली गयो, निरखी दो स्त्री रूप ॥ मो० ॥ विकलेंश्यि थयो राजवी, पडियो मोहने कूप ॥मो० ॥ सा ॥१॥हां ॥ काम ज्वर व्याप्यो घणो, नृपने तेह अथाह । मो० ॥ प जाणे दो कर ग्रही, ले जाउं मंदिरमांह ॥मो०॥ ॥ सा॥२॥ हां०॥ मूर्तीगत थयो राजवी, मोह बाण लागा असेच ॥ मो० ॥ विषयारसने कारणे; पडियो गडदापेच ॥ मो॥सा० ॥ २३ ॥ हां०॥ नृपने घाली पालखी, ले गया निज दरबार ॥मो॥ जाणें जमने मंदिरें, नृप गयो जाणे संसार ॥मो॥ ॥सा ॥ २४॥ हां ॥ पूरव जवनी वेरणी, वसंत सिरी दो नारि ॥ मो० ॥ चित्त हयुं हरिणाहीये, तृ पर्नु उतायुं वारि ॥मो०॥ सा॥२५॥ हां ॥ वैद्य बोलाव्या तिहां कणे, पकडी जुए बांह ॥ मो० ॥वै द्य बिचारा झुं करे, करक ते कालजामांह ॥ मो० ॥
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