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(१३३) तो मूकी हाथे जलावियो, मुफ लंकापति शुन था ज ॥ ए॥ १४॥ विद्याबलें पंथ काप्यो हो सुख व्याप्यो पलकमें इकडे, एतो जब थइ प्रजुनी लहेर ॥ रजनी मध्य प्रदीपें हो निज नगरी समीचे रूंखडे, ए तो मूकी वलिया घेर ॥ ए॥१५॥ ढुंपण मंदिर था यो हो सुख पायो प्रनुनी महेरथी,हुँतोजे गयो बीडंग बेय॥फति मुज चाकरी लंका हो देश का आयो तुम लहेरथी,दूं तो लंकालाडी लेय॥ए॥१६॥ए सहना णी खगनी हो जे निपनी सर्गनी तुम नणी,एतो मूकी बिनीषणें साच ॥ वलि तुमने कर जोडी हो मान मोडी प्रणिपत करी घणी, तुम सपगो कह्यो ए मुख वाच ॥ ए ॥ १७॥ ए सहनाणी देखी हो मुने पेखी आव्या जाणजो, एतो अमने विवाहमांहि ॥ वलि तुम सेवक जांखे हो मुख वचने दाखे तेमा नजो, तुम मदनवेग उडांहि ॥ ए०॥ १७ ॥ इणि प रें व्यतिकर सघलो हो नृप आगल मांमि परगलो, ए तो सपगो मनि कहेय॥ते नृप सांजली वाणी हो मन जाणी हरिबल अटकटयो, ए तो साहस धैर्य धरेय ॥ ए॥१५॥ सघती परषदा निमणि दो मन हर णि सांजली वातडी, ए तो हरखित परषद होय ॥ध
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