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जाको पद सोहत्त चित्त धरी ॥ विमल जिनंद प्रसन्न वदन जाके सुन्न मन्न सुगंग परि । एमे एक मन्न कहे नव धन्य नमो जिनराज दिांद सुप्रीत धरी ॥ १३ ॥ - नंत जिणंद देव देवमां देवाधिदेव पूजो नवि नितमेव धरी बहु जावना । सुर नर सारे सेव सुख की स्वामी देव तुज पीखे dर देव न करुं हुं सेवना || सीहसेन ग जात सुजसनिधान मात जगमां सुजस ख्यात चिहुं दिशे व्यापतो | कहे नय तास वात कीजीए जो सुप्रजात निज होइ सुख सात कीर्ति को पतो ॥१४॥ जाके प्रताप पराजित निरबल जूतल थर जमे जानु आकासे । सोम्य वदन विनिर्जित अंतर स्याम वासीवेन होत प्रकासे । जानु मही
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