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(३०४) नार अढार अपार कीयो तिहा, वनराजी विस्तार ॥ निर्मल नीर समीर वदत नित्य, पथिक जन मनोहार॥
रूमो० ॥१॥ शुभ समाधि विगत उपाधि, जोगीसर चित्त धार ॥ करत गंनीर गुहामें निशदिन, गुरुगम झान बिचार ॥
रूमो० ॥३॥ कल्याणकर्त्रण्य तिहां रे,
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