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(१४६) लोक लाज सब मारी॥ जैसें अमलि अमल करत समे, लागरदी ज्युंखुमारी॥जिणा जैसें योगी योगध्यानमें, सुरत टरत नहीं टारी ॥ तैसें आनंदघन अनुदारी, प्रनुके हुँ बलिदारी ॥जिणाशा ॥पद पंचाशीमुं ॥राग काफी॥ ॥वारी हुँ बोलडे मीठडे, तुजविनमुज नहिसरेरेसूरिजन,
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