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(५) ॥पद पचासमुंरागधन्याश्री। अनुभव प्रीतम कैसे मनासी॥
अनु० ॥ बिन निर्धन सधन बिन निर्मल, समल रूप बतासी॥अनु। बिनमें शक तक फुनि बिनमें, देखु कहत अनासी॥ विरज न विच्च आपा हितकारी, निर्धन कूट खतास॥अनुशा तोदि तूं मैरो मैं दि तुं तेरी, अंतर कार्दै जनासी ॥
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