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महाकल्प का प्रायश्चित्त विधान ※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※ की सजाई मनोहर और आकर्षक होगी वहां दर्शन पूजन करने वाले अधिक संख्या में जायेंगे, अथवा जहां के मन्दिर मूर्ति के चमत्कार की झूठी कथाएं और महात्म्य अधिक फैल चुके होंगे वहां के ही दर्शक पूजक अधिकाधिक मिलेंगे ऐसे ही मंदिरों मूर्तियों की यात्रा के लिए लोग अधिक जावेंगे, संघ भी ऐसे ही तीर्थों के लिए निकलेंगे, किन्तु जहां मामूली झोपड़े में आभूषण रहित मूर्ति होगी, जहां चित्रशाला जैसी सजाई नहीं होगी, जहां की कल्पित चमत्कारिक किंवदंतिये नहीं फैली होगी, जहां के मंदिरों की व मूर्ति की प्रतिष्ठा नहीं हुई होगी ऐसी मूर्तियों व मंदिरों को कोई देखेगा भी नहीं। देखना तो दूर रहा वहां की मूर्तियें अपूज्य रह जायगी, वहां के ताले भी कभी-कभी नौकर लोग खोल लिया करें तो भले ही किन्तु उस गांव में रहने वाले पूजक भी अन्य सजे सजाये आकर्षक मंदिरों की अपेक्षा कर इन गरीब और कंगाल मंदिरों के प्रति उपेक्षा ही रखते हैं ऐसे मंदिरों की हालत जिस प्रकार किसी धनाढ्य के सामने निर्धन और भूखे दरिद्रों की होती है बस इसी प्रकार की होती है। जिसके साक्षात प्रमाण आज भी भारत में एक तरफ तो करोड़ों की सम्पत्ति वाले, बड़े-बड़े विशाल भवन और रंग महल को भी मात करने वाले जैन मंदिर, और दूसरी ओर कई स्थानों के अपूज्य दशा में रहे हुए इन्ही तीर्थंकरों की मूर्तियों वाले निर्धन जैन मंदिर हैं। अतएव सिद्ध हुअ कि-ये मूर्ति-पूजक बन्धु वास्तव में मूर्ति-पूजक ही हैं, और मूर्ति के साथ वैभव विलास के भी पूजक हैं। यदि इनके कहे अनुसार रे मूर्तिपूजक नहीं होकर मूर्ति द्वारा प्रभु पूजक होते तो इनके लिए वैभव सजाई आदि की अपेक्षा और उपादेयता क्यों होती? प्रतिष्ठा की हुई और अप्रतिष्ठित का भेद भाव क्यों होता? क्या अप्रतिष्ठित
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