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श्री लोकाशाह मत-समर्थन
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ही सिद्ध होती है, आज यदि मूर्ति-पूजा की भयंकरता पर विचार किया जाय तो रोमांच हुए बिना नहीं रहता।
आज के विकट समय में देश की अपार सम्पत्ति का ह्रास इस मूर्ति-पूजा द्वारा ही हुआ है, मूर्ति के आभूषण मन्दिर निर्माण, प्रतिष्ठा, यात्रा संघ निकालना आदि कार्यों में अरबों रुपयों का व्यर्थ व्यय हुआ है और प्रति वर्ष लाखों का होता रहता है, ऐसे ही लाखों रुपये जैन समाज के इन मन्दिर मूर्ति और पहाड़ आदि की आपसी लड़ाई में भी हर वर्ष स्वाहा हो रहे हैं। प्रति वर्ष साठ हजार रुपये तो अकेले पालीताने के पहाड़ के कर के ही देने पड़ते हैं, भाई भाई का दुश्मन बनता है, भाई भाई की खून खराबी कर डालता है, यहां तक कि इन मन्दिर मूर्तियों के अधिकार के लिये भाई ने भाई का रक्तपात भी करवा दिया है जिसके लिये केशरिया हत्याकांड का काला कलंक मूर्तिपूजक समाज पर अमिट रूप से लगा हुआ है। ऐसी सूरत में ये मन्दिर और मूर्तियें देश का क्या उत्थान और कल्याण करेंगे?
जहां देश के अगणित बन्धु भूखे मरते हैं और तड़फ-तड़फ कर अन्न और वस्त्र के लिये प्राण खो देते हैं वहां इन शूरवीरों को लाखों रुपये खर्च कर संघ निकालने में ही आत्म कल्याण दिखाई देता है, यह कहां की बुद्धिमत्ता है?
कितने ही महानुभाव यह कहते हैं कि - हम मूर्ति-पूजा नहीं करते किन्तु मूर्ति द्वारा प्रभु पूजा करते हैं। किन्तु यह कथन भी सत्य से दूर है। वास्तव में तो ये लोग मूर्ति ही की पूजा करते हैं, और साथ ही करते हैं वैभव का सत्कार। यदि आप देखेंगे तो मालूम होगा कि जहां मूर्ति के मुकुट कुण्डलादि आभूषण बहुमूल्य होंगे, जहां के मन्दिर विशाल और भव्य महलों को भी मात करने वाले होंगे, जहां
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