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महाकल्प का प्रायश्चित्त विधान
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तो इससे सत्यान्वेषी जनता पर कोई असर नहीं हो सकता। किसी भी समाज को देखिये उनका जो भी धर्म कृत्य है वे सभी विधि रूप से वर्णन किये हुए मिलेंगे, जिस प्रवृत्ति का विधि वाक्य ही नहीं वह धर्म कैसा ? और उसके नहीं करने पर प्रायश्चित्त भी क्यों ?
सोचिये कि एक राजा अपनी प्रजा को राजकीय नियम तथा कायदे नहीं बतावे और उसके पालन करने की विधि से भी अनभिज्ञ रक्खे फिर प्रजा को वैसा नियम पालन नहीं करने के अपराध में कारावास में ठूंस कर कठोर यातना देवे तो यह कहाँ का न्याय है ? क्या ऐसे राजा को कोई न्यायी कह सकता है ? नहीं! बस इसी प्रकार तीर्थंकर प्रभू मूर्ति-पूजा करने की आज्ञा नहीं दे और न विधि विधान ही बतावे, फिर भी नहीं पूजने पर दण्ड विधान करें? यह हास्यास्पद बात समझदार तो कभी भी मान नहीं सकता।
अतएव महाकल्प के दिये हुए प्रमाण की कल्पितता में कोई संदेह नहीं और इसीसे अमान्य है ।
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इस प्रकार हमारे मूर्ति पूजक बन्धुओं द्वारा दिये जाने वाले आगम प्रमाणों पर विचार करने के पश्चात् इनकी युक्तियों की परीक्षा करने के पूर्व निवेदन किया जाता है कि -
किसी भी वस्तु की सच्ची परीक्षा उसके परिणाम पर विचार करने से ही होती है, जिस प्रवृत्ति से जन- समाज का हित और उत्थान हो, वह तो आदरणीय है और जो प्रवृत्ति अहित, पतन की ओर ले जाने वाली और दुःखदायी हो वह तत्काल त्यागने योग्य है।
प्रस्तुत विषय ( मूर्ति पूजा) पर विचार करने से यह हेयपद्धति
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