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श्री लोकाशाह मत-समर्थन
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बताया गया है, तथापि धर्म के नाम पर वैभव विलास के इच्छुक महाशयों ने सूत्रों के पाठों में परिवर्तन और नूतन प्रक्षेप करने में कुछ भी न्यूनता नहीं रखी। इस विषय में मात्र एक दो प्रमाण यहाँ दिये जाते हैं, देखिये -
१. मूर्ति-पूजक विजयानन्दसूरि स्वयं 'जैन तत्वादर्श' पृष्ठ ५८५ पर लिखते हैं कि
विजयदान सूरि ने एकादशांग अनेक बार शुद्ध किये। २. पुनः पृष्ठ ३१२ पर लिखते हैं कि - सर्व शास्त्रों की टीका लिखी थी वो सर्व विच्छेद हो गई।
३. महानिशीथ के विषय में मूर्ति मण्डन प्रश्नोत्तर पृ० १८७ में लिखा है कि -
ते सूत्र नो पाछलनो भाग लोप थई जवाथी पोताने जेटलुं मली आव्युं तेटलुं जिनाज्ञा मुजब लखी दी । ... सिवाय इसके महानिशीथ की भाषा शैली व बीच में आये हुए आचार्यों के नाम भी इसकी अर्वाचीनता सिद्ध करते हैं।
इत्यादि पर से स्पष्ट होता है कि आगमविरुद्ध वीतराग वचनों का बाधक अंश शुद्धि तथा पूर्ण करने के बहाने से या अपनी मान्यता रूप स्वार्थ पोषण की इच्छा से कई महानुभावों ने सूत्रों में घुलाकर वास्तविकता को बिगाड़ डाला है, यही अधम कार्य आज भयंकर रूप धारण कर जैन-समाज को छिन्न-भिन्न कर विरोध कलह आदि का घर बना रहा है। . जब कि आगमों में मूर्ति-पूजा करने का विधिविधान बताने वाली आप्त आज्ञा के लिए बिन्दु विसर्ग तक भी नहीं है, तब ऐसे . स्वार्थियों के झपाटे में आये हुए ग्रन्थों में फल विधान का उल्लेख मिले
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