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महाकल्प का प्रायश्चित्त विधान
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आगे चलकर लिखा है कि - ___'जिन मन्दिर, जिन प्रतिमा आदि आरम्भिक कार्यों में भावस्तव वाले मुनिराज खड़े भी नहीं रहे, यदि खड़े रहे तो अनंत संसारी बने।'
पुनः आगे लिखा है कि -
'जिसने समभाव से कल्याण के लिए दीक्षा ली फिर मुनिव्रत छोड़कर न तो साधु में और न श्रावक में ऐसा उभय भ्रष्ट नामधारी कहे कि मैं तो तीर्थंकर भगवान् की प्रतिमा की जल, चन्दन, अक्षत, धूप, दीप, फल, नैवेद्य आदि से पूजा कर तीर्थों की स्थापना कर रहा हूँ तो ऐसा कहने वाला भ्रष्ट श्रमण कहलाता है, क्योंकि वह अनंत काल पर्यंत चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करेगा।'
इतना कहने के पश्चात् पांचवें अध्ययन में लिखा है कि -
'जिन पूजा में लाभ है ऐसी प्ररूपणा जो अधिकता से करे और इस प्रकार स्वयं और दूसरे भद्रिक लोगों से फल, फूलों का आरम्भ करे तथा करावे तो दोनों को सम्यक्त्व बोध दुर्लभ हो जाता है।' ___इत्यादि खण्डनात्मक कथन जिस महानिशीथ में है उस के सामने यह महाकल्प का प्रायश्चित्त विधान महाकाल्पनिक ही प्रतित होता है।
यद्यपि महानिशीथ और महाकल्प की नोंध नंदी सूत्र में है, तथापि यह ध्यान में रखना चाहिए कि सभी सूत्र अब तक ज्यों के त्यों मूलस्थिति में नहीं रहे हैं, इनमें बहुतसा अनिष्ठ परिवर्तन भी हुआ है। हमारे कितने ही ग्रन्थ तो आक्रमणकारी आतताईयों द्वारा नष्ट हो गये हैं। फिर भी जितने बचकर रहे वे भी एक लम्बे समय से (चैत्यवाद और चैत्यवास प्रधान समय से) मूर्ति पूजकों के ही हाथ में रहे। यद्यपि सूत्र के एक वर्ण विपयसि को भी अनंत संसार का कारण
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