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________________ आवश्यक नियुक्ति और भरतेश्वर ※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※ अबाधक हो तथा आगम के आशय को पुष्ट करने वाले हों तो हमें उनको मानने में कोई बाधा नहीं है। किन्तु जो अंश सर्वज्ञ वचनों को बाधक और बनावटी या प्रक्षिप्त होकर आगम वाणी को ठेस पहुंचाने वाला हो वह अनर्थोत्पादक होने से हमें तो क्या पर किसी भी विज्ञ के मानने योग्य नहीं है। इन टीका आदि ग्रंथों में कई स्थान पर आगमाशय रहित भी विवेचन या कथन हो गया है, इसीलिये ये ग्रंथ सम्पूर्ण रूप में मान्य नहीं है, टीका आदि के बहाने से स्वार्थी लोगों ने बहुत कुछ घोटाला कर डाला है। जिनको कसौटी पर कसने से शीघ्र ही कलाई खुल जाती है, अतएव ऐसे बाधक अंश तो अवश्य अमान्य है। मेरा तो यह दृढ़ विश्वास है कि ऐसी बिना सिर पैर की बात मूल नियुक्तिकार की नहीं होगी, पीछे से किसी महाशय ने यह चतुराई (?) की होगी, ऐसे चतुर महाशयों ने शुद्ध स्वर्ण में तांबे की तरह मूल में भी प्रतिकूल वचन रूप धूल मिलाने की चेष्टा की है, जो आगे चल कर बताई जायगी। श्रेणिक राजा का नित्य १०८ स्वर्ण जौ से पूजने का कथन भी इसी प्रकार निर्मूल होने से मिथ्या है, यदि लेखक १०८ के बदले एक क्रोड आठ लाख भी लिख मारते तो उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था। किन्तु जब विद्वान् लोग इस कथन को वीतराग वाणी रूप कसौटी पर कस कर देखेंगे तब यह स्पष्ट पाया जायगा कि मूर्ति-पूजा के प्रचारकों ने मूर्ति की महिमा फैलाने के लिये इसे महान् पुरुषों के जीवन में जोड़ कर जहां तहां वैसे उल्लेख कर दिये हैं। इससे पाया जाता है कि यह स्वर्ण जौ का कथन भी भरतेश्वर के कल्पना चित्र की तरह अज्ञान लोगों को भ्रम में डालने का साधन मात्र है। श्रेणिक की जिन-मूर्ति पूजा तो इन्हीं के वचनों से मिथ्या ठहरती है, क्योंकि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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