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श्री लोकाशाह मत - समर्थन
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कुछ संकेत है क्या? तब उत्तर में तो आपको अनिच्छा पूर्वक भी यह कहना पड़ेगा कि मूल में तो इस विषय का एक शब्द भी नहीं है, क्योंकि अभाव का सद्भाव तो आप कैसे कर सकते हैं? इधर प्रकृति का यह नियम है कि बिना मूल के शाखा, प्रतिशाखा, पत्र, पुष्प, फल आदि नहीं हो सकते, अगर कोई बिना मूल के शाखा आदि होने का कहे भी तो वह सुज्ञजनों के सामने हंसी का पात्र बनता है इसी प्रकार बिना मूल की यह शाखा रूप यह नियुक्ति ( व्याख्या) भी युक्ति रहित होने से अमान्य रहती है।
भरतेश्वर का विस्तृत वर्णन जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र के मूल पाठ में आया है, उसमें भरतेश्वर के चक्ररत्न, गुफा, किंवाड़ आदि के पूजने का तो कथन है, षटखण्ड साधना में व्यंतरादि देवों की आराधना व उनके लिये तपस्या करने का भी कहा गया है. किन्तु ऐसे बड़े विस्तृत वर्णन में जहाँ किं उनके स्नान आदि का सविस्तार कथन किया गया है, मूर्ति-पूजा के लिये बिन्दु विसर्ग तक भी नहीं है और तो क्या किन्तु यहां स्नानाधिकार में आपका प्रिय 'कयबलिकम्मा' शब्द भी नहीं है फिर नियुक्तिकार का यह कथन कैसे सत्य हो सकता है ? यहां तो यह नियुक्ति मूर्ति पूजक विद्वानों के स्वार्थ साधन की शिकार बनकर 'निर्गतायुक्तिर्याः' अर्थात् निकल गई है युक्ति जिससे (युक्ति रहित ) ऐसी ही ठहरती है, इसमें अधिक कहने की आवश्यकता नहीं ।
मूर्ति पूजा का यह पाठ होने से ही ३२ सूत्रों के सिवाय ग्रंथ आदि भी हमको मान्य नहीं ऐसी आपकी शंका भी ठीक नहीं है। आपको स्मरण रहे कि ३२ सूत्रों के सिवाय भी जो सूत्र, ग्रंथ, टीका, निर्युक्ति, चूर्णि, भाष्य, दीपिका, अवचूरि आदि वीतराग वचनों को
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