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प्रधान" के विषय में जिन शब्दों का उल्लेख है। उससे मालूम होता है कि उन्होंने “जितशत्रु राजा” को उसी प्रकार निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश दिया, जिस प्रकार निर्ग्रन्थ देते हैं। तात्पर्य यह है कि वे निर्ग्रन्थ प्रवचन ( आगम) के ज्ञाता थे ।
५. उववाई सूत्र में श्रावकों को “धम्मक्खाई" धर्म का प्रतिपादन करने वाले कहा है। धर्म का प्रतिपादन वही कर सकता है जो स्वयं धर्मज्ञ हो ।
६. सूयगडांग २-२ तथा भगवती २-५ में श्रावकों के लिए लिखा है - " लद्धट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा' अर्थात् - वे सूत्रार्थ को प्राप्त किये हुए, ग्रहण किये हुए, पुनः पूछ कर स्थिर किये हुए, निश्चित् किये हुए और समझे हुए थे।
७. श्रावकों के ६६ अतिचारों में ज्ञान के १४ अतिचार भी सम्मिलित है, जो सर्व मान्य है। जिसमें “सुत्तागमे, अत्थागमे तदुभयागमे" भेद स्पष्ट है। ये सभी अतिचार आगमों के मूल एवं अर्थ रूप स्वाध्याय एवं अध्ययन से ही संभव है।
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इस प्रकार श्रावक आगम ज्ञान के धारक हो सकते हैं। वे आगम ज्ञान के धारक तभी हो सकते हैं, जब उन्होंने आगमों का स्वाध्याय अध्ययन किया हो । श्रावकों के सूत्र पढ़ने का निषेध कहीं पर भी नहीं दिया है। तो फिर प्रश्न उत्पन्न होता है कि हमारे पड़ोसी मन्दिरमार्गी समाज को उनके धर्म गुरु अपने श्रावकों को आगम वाचन का निषेध क्यों करते हैं? इसका एक मात्र कारण यही नजर आता है कि वे अपनी आगम विरुद्ध प्रवृत्तियों को दबाये रखना चाहते हैं । यदि श्रावक वर्ग ने आगमों का अध्ययन चालू कर दिया
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