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________________ [9] **************************************** * तो फिर उनकी स्वेच्छानुसार आगम विपरीत प्रवृत्तियों का पर्दाफाश हो जावेगा। फिर वे लोग "बाबा वाक्य प्रमाणं' पर विश्वास नहीं करेंगे। अतएव श्रावक वर्ग को आगम अध्ययन के अयोग्य ठहराना ही उन्होंने अपने लिए परम हितकर समझा। इसके पीछे आपका लक्ष्य यही कि श्रावक वर्ग को पूजा-पाठ, आरम्भ समारंभ के कार्यों में ऐसा उलझायें रखों ताकि ये आगम के नजदीक जा ही नहीं सकेंगे। जब आगम के नजदीक जावेंगे ही नहीं, तो फिर अपनी पोपलीला जैसे चलावेंगे वैसे चलती रहेगी। मूर्तिपूजक मान्यता के पंडित बेचरदासजी दोसी जैसा बिरला ही कोई व्यक्ति होगा जो इस विषय में अपने गुरुओं की परवाह किये बिना आगमों का अध्ययन मनन करके मूर्ति पूजा विषयक सत्य हकीकत प्रकट कर अज्ञान निंद्रा में सोई हुई जनता के समक्ष सिद्ध कर दिखाया कि “मूर्ति पूजा आगम विरुद्ध है" इसके लिए तीर्थकरों ने सूत्रों में कोई विधान नहीं किया। यह कल्पित पद्धति है। जैन दर्शन का मूल अहिंसा पर आधारित है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में बतलाया गया है। “सव्वजगजीव रक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहिया" अर्थात् समस्त जीवों की रक्षा रूप दया के लिए भगवान् ने प्रवचन फरमाया है। यानी किसी भी निमित्त से किसी भी प्रकार से हिंसा करने का प्रभु ने निषेध किया है। इसके लिए आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध में बतलाया गया है - इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरण-मोयणाए दुक्खपडिघायहे' अर्थात् आरम्भ (जीव हिंसा) के विषय में निश्चय ही प्रभु महावीर ने अपने केवलज्ञान में देख कर फरमाया है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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