________________
श्री लोकाशाह मत - समर्थन
**************************************
होने में कोई प्रमाण नहीं है । जब श्री विजयानन्दजी चैत्य के तीन अर्थ करते हैं तो इनके शिष्य महोदय शांतिविजयजी जिनके लम्बे चौड़े टाईटल इस प्रकार हैं.
जनाब, फैजमान, मग्जनेइल्म, जैन श्वेताम्बर धर्मोपदेष्टा विद्यासागर, न्यायरत्न, महाराज शांतिविजयजी अपने गुरु से दो कदम आगे बढ़ कर अपने गुरु के बताये हुए तीन अर्थों में से एक को उड़ा Maha at t अर्थ करते हैं वे इस प्रकार हैं।
'चैत्य शब्द के मायने जिन - मन्दिर और जिन - मूर्ति यह दो होते हैं, इससे ज्यादे नहीं' (जैन मत पताका पृ० ७४ पं० ८) इस तरह जहां मनमानी और घर जानी होती है । हटाग्रह से ही काम चलता हो वहां शुद्ध अर्थ की दुर्दशा होना सम्भव हैं क्योंकि जहां हठ का प्राबल्य हो जाता है वहां उल्लिखित आगम सम्मत प्रकरणानुकूल शुद्ध अर्थ बताये जायं तो भी वे अपने मिथ्या हठ के कारण भले ही प्रकरण के प्रतिकूल हो मनमानी अर्थ ही करेंगे। ऐसे महानुभावों से कहना है कि कृपया तत्त्व निर्णय में तो हठ को छोड़ दीजिये और फिर निम्न प्रमाण देखिये आपके ही मान्य ग्रन्थकार आपकी दो और तीन ही मनमाने अर्थ मानकर अन्य का लोप करने की वृत्ति को असत्य प्रमाणित कर रहे हैं -
४५
खेमविजयजी गणि कल्पसूत्र पृ० १६० पं० ६ में 'वेयावत्तस्स चेइयस्स' का अर्थ 'व्यंतरनुं मन्दिर' लिखते हैं, यहां आपके किये अर्थों से यह अधिक अर्थ कहां से आ गया ?
यदि आप लोग चैत्य शब्द से जिन मन्दिर और जिन मूर्ति ही अर्थ करते हैं तो समवायांग में दुःख विपाक की नोंध लेते हुए बताया गया है कि .
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org