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________________ ३८ ※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※ तुंगिया के श्रावक गृहस्थ श्रावक लौकिक कार्य और कुलाचार से लौकिक देवताओं को पूजे, इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? अतएव सिद्ध हुआ कि श्रमणोपासक वंशपरंपरानुसार लौकिक देवों का पूजन कर सकते हैं। __ अगर इसको धर्म नहीं मानने की बुद्धि है तो इतने पर से सम्यक्त्व चला नहीं जाता। और ‘कयबलिकम्मा' शब्द का अर्थ एकान्त 'देवपूजा' भी तो नहीं हो सकता, क्योंकि - (क) प्रथम तो यह शब्द स्नान के विस्तार को संकोच कर रक्खा गया है। (ख) दूसरा ज्ञाताधर्म कथांग के ८ वें अध्ययन में मल्लिनाथ के स्नानाधिकार में भी यह शब्द आया है। इसलिये इसका देव पूजा अर्थ नहीं होकर स्नान विशेष ही हो सकता है। क्योंकि गृहस्थावस्था में रहे हुए तीर्थंकर प्रभु भी चक्रवर्तीपन के सिवाय, माता पिता के अलावा और किसी को वन्दन, नमन, पूजा नहीं करते। अतएव यहां देवपूजा अर्थ नहीं होकर स्नान विशेष ही माना जायगा। इस तरह बलिकर्म का अर्थ जिन-मूर्ति पूजा मानना बिलकुल अनुचित और प्रमाण शून्य दिखता है। जो कार्य आस्रव वृद्धि का तथा गृहस्थों के करने का चरितानुवाद रूप है उसमें धार्मिकता मान कर उसमें धार्मिक विधि कह डालने वाले वास्तव में अपनी कूटनीति का परिचय देते हैं। क्योंकि श्रावकों के धार्मिक जीवन का जहां वर्णन है वहां इसी भगवती सूत्र के तुंगिया के श्रावकों के वर्णन में यह बताया है कि - ___ 'वे श्रावक जीवाजीव आदि नव पदार्थों के जानकार, निग्रंथ प्रवचन में अनुरक्त, दान के लिए खुले द्वार वाले तथा भण्डार और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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