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तुंगिया के श्रावक
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अर्थ है, क्योंकि-यह शब्द जहाँ स्नान का संक्षेप वर्णन किया गया है ऐसे जगह में अथवा बलवर्द्धक कर्म के अर्थ में आया है, उसे धार्मिकता का रूप देना नितान्त पक्षपात है और जहाँ स्नान का विस्तार युक्त कथन है वहाँ श्रावकों के अधिकार में भी यह बलिकर्म शब्द नहीं है। (देखो उववाइ, जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति) किन्तु जहाँ स्नान का विस्तार संकुचित किया गया है, वहाँ यही शब्द आया है। अतएव इस शब्द से मूर्ति पूजा करना सिद्ध नहीं हो सकता।
टीकाकार इस शब्द का 'गृहदेव पूजा' अर्थ करते हैं, यहाँ गृहदेव से मतलब गोत्र देवता है, अन्य नहीं। श्रीमद् रायचन्द्र जिनागम संग्रह में प्रकाशित भगवती सूत्र के प्रथम खंड में अनुवाद कर्ता पं० बेचरदासजी जो स्वयं मूर्ति पूजक हैं इस शब्द का अर्थ 'गोत्रदेवी नुं पूजन करी' करते हैं (देखो पृष्ठ २७९) और इस खण्ड के शब्द कोष में भी इस शब्द का अर्थ 'गृह गोत्र देवी नुं पूजन' ऐसा किया है (देखो पृष्ठ ३८१ की दूसरी कालम) इस पर से सिद्ध हुआ है कि मूर्ति-पूजक विद्वान् यद्यपि बलिकर्म का अर्थ 'गृहदेवी की पूजा करते हैं तो भी तीर्थंकर मूर्ति-पूजा ऐसा अर्थ करना तो उन्हें भी मान्य नहीं है।
इस विषय में मूर्ति पूजक आचार्य विजयानंद सूरि आदि ऐसी कुतर्क करते हैं कि - वे श्रावक देवादि की सहायता चाहने वाले नहीं थे, इसलिए यहाँ 'गृहदेव पूजा' से मतलब घर में रहे हुए तीर्थंकर मन्दिर (घर देरासर) से हैं, क्योंकि वे तीर्थंकर सिवाय अन्य देव का पूजन नहीं करते थे किन्तु यह तर्क भी असत्य है। क्योंकि भगवती सूत्र में इन श्रावकों के विषय में यह कहा गया है कि जिनको निर्ग्रन्थ प्रवचन से डिगाने में देव दानव भी समर्थ नहीं थे, आपत्ति के समय किसी भी देवता की सहाय नहीं इच्छ कर स्वकृत कर्म फल को ही
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