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श्री लोंकाशाह मत-समर्थन
३५ ※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※ और इसीलिए यह दूसरा अरिहन्त चैत्य शब्द लेना पड़ा। यदि अरिहन्त चैत्य से मूर्ति अर्थ करोगे तो चमरेन्द्र पास ही प्रथम स्वर्ग की मूर्तियां छोड़कर व अपने जीवन को संकट में डाल कर इतनी दूर तिरछे लोक में क्यों आता? वहाँ तो यह भयाकुल बना हुआ था इसलिए समीप के आश्रय को छोड़ कर इतनी दूर आने की जरूरत नहीं थी, किन्तु जब मूर्ति का शरण ही नहीं तो क्या करें? चार मांगलिक, चार उत्तम शरणों में भी मूर्ति का कोई शरण नहीं है, फिर यह व्यर्थ का सिद्धांत कहाँ से निकाला गया? जब कि मूर्ति स्वयं दूसरे के आश्रय में रही हुई है और उसकी खुद की रक्षा भी दूसरे द्वारा होती है, फिर भी मौका पाकर आततायी लोग मूर्ति का अनिष्ट कर डालते हैं तो फिर ऐसी जड़ मूर्ति दूसरों के लिए क्या शरणभूत होगी? । ___ आश्चर्य होता है कि - ये लोग खाली शब्दों की खींचतान करके ही अपना पक्ष दूसरों के सिर लादने की कोशिश करते हैं और यही इनकी असत्यता का प्रधान लक्षण है, इस प्रकार किसी धार्मिक व सर्वमान्य, आप्तकथित कहे जाने वाले सिद्धांत की सिद्धि नहीं हो सकती, उसके लिए तो आप्तकथित विधि विधान ही होना चाहिए।
७. तुंगिया के श्रावक प्रश्न - भगवती सूत्र में कहा गया है कि तुंगिया नगरी के श्रावकों ने जिन-मूर्ति पूजा की है, इसके मानने में क्या बाधा है?
उत्तर - उक्त कथन भी एकान्त असत्य है, भगवती सूत्र में उक्त श्रावकों के वर्णन में मूर्ति-पूजा का नाम निशान तक भी नहीं है। किन्तु सिर्फ मूर्ति-पूजक लोगों ने उस स्थल पर आये हुए 'कयबलिकम्मा' शब्द का अर्थ मूर्ति पूजा करना ऐसा हैं यही तो
और
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