________________
श्री लोकाशाह मत-समर्थन
※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※
यहाँ अरिहंत चैत्यार्थ अरिहंत के साधु ही समझना उपयुक्त और प्रकरण संगत है।
यदि अरिहंत चैत्य शब्द से अरिहंत की मूर्ति ऐसा अर्थ माना जाय को अन्य तीर्थी के ग्रहण कर लेने मात्र से वह मूर्ति अवन्दनीय कैसे हो सकती है? यह तो बड़ी प्रसन्नता की बात होनी चाहिए कितीर्थंकर मूर्ति को अन्य तीर्थी भी माने और वन्दे पूजे! हाँ यदि साधु अन्य तीर्थी में मिलकर उनके मतावलम्बी हो जाय तब वो तो अवन्दनीय हो सकता है, किन्तु मूर्ति क्यों? उसमें कौनसा परिवर्तन हुआ? उसने कौनसे गुण छोड़ कर दोष ग्रहण कर लिये? वह अछूत क्यों मानी गई? इत्यादि विषयों पर विचार करते यही प्रतीत होता है कि - यहाँ अरिहंत चैत्य का मूर्ति अर्थ असंगत ही है।
५. "चारण मुनि" प्रश्न - जंघाचारण विद्याचारण मुनियों ने मूर्ति वांदी है, यह भगवती सूत्र का कथन तो आपको मान्य है न?
उत्तर - तुम्हारा यह कथन भी ठीक नहीं, कारण भगवती सूत्र में चारण मुनियों ने मूर्ति को वन्दना की ऐसा कथन ही नहीं है, वहाँ तो श्री गौतमस्वामी ने चारण मुनियों की ऊर्ध्व अधोदिशा में गमन करने की कितनी शक्ति है ऐसा प्रश्न किया है, जिसके उत्तर में प्रभु ने यह बतलाया है कि - यदि चारण मुनि ऊर्ध्वादि दिशा में जावें तो इतनी दूर जा सकते हैं उसमें 'चेइयाइं वन्दइ' चैत्य वन्दन यह शब्द आया है जिसका मतलब स्तुति होता है, आपके विजयानंद जी ने भी परोक्ष वन्दन (स्तुति) को चैत्य वन्दन कहा है तो यहाँ परोक्ष वन्दन मानने में आपत्ति ही क्या है? इसके सिवाय यदि इस प्रकार कोई मुनि
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org