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श्री लोकाशाह मत-समर्थन
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चालाकी सुज्ञ जनता में अधिक देर नहीं टिक सकती, क्योंकि समझदार जनता जब प्राचीन प्रतियों का निरीक्षण करके उनमें बढ़ाया हुआ अरिहंत शब्द नहीं देखेगी तो आपकी चालाकी एकदम पकड़ी जा सकेगी, क्योंकि प्राचीन प्रतियों में यह अरिहंत शब्द है ही नहीं। इसके सिवाय -
(अ) एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता से प्रकाशित उपासकदशांग की प्रति में तो 'अरिहंत-चेइयाई' शब्द नहीं है और उसके अंग्रेजी अनुवादक ए० एफ० रुडोल्फ होर्नल साहब ने अनेक प्राचीन प्रतियों पर से नोट में ऐसा लिखा है कि -
'चैत्य और अरिहंत चैत्य शब्द टीका में से लेकर मूल में मिला दिया है, जिस टीका में लिखा है कि-पूजनीय अरिहंत देव या चैत्य है।'
(आ) मूर्तिपूजक विद्वान पं० बेचरदासजी ने भगवान् महावीरना दश उपासको' नामक पुस्तक लिखी है जो कि - उपासगदशांग का भाषानुवाद है उन्होंने भी उक्त पाठ के अनुवाद में पृ० १४ के दूसरे पेरे में उक्त एशियाटिक सोसायटी की प्रति के समान ही 'अरिहंत चैत्य' रहित पाठ मानकर भाषान्तर किया है। देखिये -
___ 'आजथी अन्य तीर्थिकों ने, अन्य तीर्थिक देवताओं ने, अन्य तीर्थ के स्वीकारेला ने, वंदन अने नमन करवू मने कल्पे नहीं' आदि।
उपरोक्त विचार से यह सिद्ध हो गया कि - पीछे के किसी मूर्ति पूजक लेखक ने आदर्श श्रावकों को मूर्ति पूजक सिद्ध करने के लिये ही 'अरिहंत' शब्द को मूल में प्रक्षिप्त कर अपने श्रद्धालु भक्तों को भ्रम में डाला है, किन्तु इतना कर लेने पर भी इनकी इष्ट सिद्धि तो नहीं हो सकी, क्योंकि इस में निम्न कारण विचारणीय हैं -
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