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आनन्द श्रावक ※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※
(क) श्रावक महोदय ने अपनी पूर्व प्रतिज्ञा में कहा कि - मुझे अन्य तीर्थी आदि को वन्दनादि करना, उनको चारों तरह का आहार देना तथा बिना बोलाये उनसे बोलना, बारंबार बोलना ऐसा मुझे नहीं कल्पता है, इससे यह सिद्ध होता है कि - इस प्रतिज्ञा का सम्बन्ध मनुष्यों से ही है, आहारादि देना, दिलाना, पहले बोलना, अधिक बोलना, ये क्रियाएँ मनुष्यों के साथ ही की जा सकती है, किसी जड़ मूर्ति के साथ नहीं।
(ख) यदि चैत्य शब्द से सूत्रकार को मूर्ति अर्थ इष्ट होता तो खान, पान आदि क्रियाओं के साथ साथ पूजा, प्रतिष्ठा, धूप, दीप, नैवेद्य आदि वस्तुओं का भी निर्देश किया जाता क्योंकि मूर्ति-पूजा के काम में यही वस्तुएँ उपयोगी होती हैं। अशन, पान, अलाप, संलाप से मूर्ति का तो कोई सम्बन्ध ही नहीं हो सकता।
(ग) कल्प सम्बन्धी दूसरी प्रतिज्ञा में तो साधु के सिवाय अन्य किसी का भी नाम नहीं है। न वहां चैत्य शब्द का उल्लेख है। यदि सूत्रकार या श्रावक महोदय को मूर्तिपूजा इष्ट होती तो इस विधि प्रतिज्ञा में उसके लिये भी कुछ न कुछ स्थान अवश्य होता। ____ अतएव सिद्ध हुआ कि हमारे मूर्ति पूजक बन्धुओं ने जो अपने मनमाने शब्द और अर्थ लगाकर आनन्द श्रावक को मूर्ति पूजक कहने की धृष्टता की है वह सर्वथा हेय है। इन भोले भाइयों को अपने ही मान्य विजयानन्दसूरि (जो कट्टर मूर्तिपूजक थे) के निम्न कथन पर ध्यान देकर विचार करना चाहिये। आपने मूर्तिपूजा के मंडन में साधुमार्गियों की निंदा करते हुये 'सम्यक्त्व शल्योद्धार' हिन्दी की चतुर्थावृत्ति में 'आनंद श्रावक जिन प्रतिमा वांदी है' इस प्रकरण में पृष्ठ ८५ पंक्ति १ से लिखा है कि -
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