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________________ २२ आनन्द श्रावक 米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米 बोलाने से पूर्व बोलना, बारंबार बोलना, अशन, पान, खादिम, स्वादिम, देना, बारंबार देना, यह नहीं कल्पता है। . अब कल्पता क्या है सो कहते हैं - 'कप्पड़ मे समणे णिग्गंथे फासएणं एसणिज्जेणं. असण, पाण, खाइम, साइम, वत्थ, पडिग्गह, कंबल, पायपुंछणेणं, पीढ, फलग, सिज्जा संथारएणं, ओसहभेसज्जेणं, पडिलाभेमाणे विहरित्तए'। अर्थात् - आनन्द श्रावक प्रतिज्ञा करता है कि - मुझे श्रमण निग्रंथ को प्रासुक एषणीय अशन पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पात्रपुच्छना, पीठ, फलक, शया, संथारा, औषधि, भेषज्य प्रतिलाभते हुये विचरना कल्पता है। यहां आनन्द श्रावक सम्बन्धी कल्पनीय तथा अकल्पनीय विषयक दोनों पाठ दिये गये हैं, इस पर से मूर्तिपूजा कैसे सिद्ध हो सकती है? मूर्तिपूजक लोग अर्वाचीन प्रतिओं में निम्न रेखांकित शब्द बढ़ाकर कहते हैं कि - आनन्द श्रावक ने जिन प्रतिमा वांदी है। बढ़ाया हुआ शब्द सम्बन्धित वाक्य के साथ इस प्रकार है - “अण्णउत्थिय परिग्गहियाणि 'अरिहंत' चेइयाई" उक्त पाठ में रेखांकित अरिहंत शब्द अधिक बढ़ाकर इस शब्द से यहां यह अर्थ करते हैं कि - ___ 'अन्य तीर्थियों के ग्रहण किये हुए अरिहन्त चैत्य-जिन प्रतिमा' (इसे वन्दन नहीं करूं) इस तरह ये लोग पाठ बढ़ाकर और उसका मनमाना अर्थ करके उससे मूर्तिपूजा सिद्ध करना चाहते हैं, किन्तु इस प्रकार की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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