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________________ श्री लोकाशाह मत - समर्थन ************************************** अक्षरों में रखते किन्तु अब सूत्रों में ही नहीं तो लावे कहां से? अतएव सूत्रों में मूर्ति पूजा का विधान होने का कहना और सूर्याभ के कथानक की अनुचित साक्षी देना मृषावाद और हिंसावाद के पोषण करने के समान है। समझदारों को चाहिए कि वे निष्पक्ष बुद्धि से विचार कर सत्य को ग्रहण करें। ३. “आनन्द श्रावक' २१ - उत्तर प्रश्न: आनन्द श्रावक ने जिन प्रतिमा वांदी है, ऐसा कथन “उपासक दशांग” में है, इस विषय में आपका क्या कहना है ? उक्त कथन भी असत्य है, उपासकदशांग में आनन्द के जिन प्रतिमा वन्दन का कथन नाम मात्र को भी नहीं है, यह तो इन बन्धुओं की निष्फल ( किन्तु अन्ध श्रद्धालुओं में सफल ) चेष्टा है, ये लोग मात्र वहां आये हुए 'चैत्य' शब्द से ही मूर्ति वन्दने का अडंगा लगाते हैं, जो कि सर्वथा अनुचित है। यह शब्द किस विषय में और किस अर्थ को बताने में आया है, पाठकों की जानकारी के लिए उस स्थल का वह पाठ लिखकर बताया जाता है - - नो खलु मे भंते! कप्पइ अज्जप्पभिदं अण्णउत्थिए वा अण्णउत्थियदेवयाणि वा अण्णउत्थियपरिग्गहियाणि वा चेइयाई, वंदित्तए वा, णमंसित्तए वा, पुव्विं अणालतेणं आलवित्तए वा, संलवित्तए वा, तेसिं असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, दाउं वा अणुप्पदाउं वा । अर्थात् - इसमें आनन्द श्रावक प्रतिज्ञा करता है कि - निश्चय से आज के पश्चात् मुझे अन्य तीर्थिक, अन्य तीर्थ के देव और अन्यतीर्थी के ग्रहण किये हुए साधु को वंदन नमस्कार करना, उनके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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