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________________ २० सूर्याभ देव ※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※ जवाहिरात की भी मूर्ति बनवालें तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। जो जिसे आदरणीय मानता है वह उसकी यादगार में उसका चित्र बनावे या बनवाले यह स्वाभाविक है, किन्तु ये सभी स्मारक में ही गिने जाते हैं, इसमें धार्मिकता का कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसे कृत्यों में धर्म समझकर अमित द्रव्य व्यय और अगणित त्रस, स्थावर जीवों का विनाश कर डालना, केवल मूर्खता ही है। यदि मूर्ति-पूजक पं० बेचरदासजी के शब्दों में कहा जाय तो धार्मिक विधानों की सिद्धी किसी कथा की ओट लेकर नहीं हो सकती, उनके लिए विधि वाक्य ही होने चाहिए, इसलिए धर्म के मुख्य अङ्ग कहे जाने वाले कार्य के लिए कोई खास विधि का प्रमाण नहीं बताकर किसी कथा की ओट लेना और उसके भाव को तोड़ मरोड़ कर मनमानी खींचतान करना, यह अपने पक्ष को ही कल्पित और असत्य सिद्ध करना है। कथानक के पात्र स्वतंत्र हैं, वे अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकते हैं, उनके किये कार्य सभी के लिए सर्वथा उपादेय नहीं हो सकते, और विधि विधान जो होता है वो सभी के लिए समान रूप से उपादेय होता है, उसके लिए खास शब्दों में कथन किया जाता है। अमुक कार्य इस प्रकार करना ऐसा स्पष्ट वाक्य विधि में गिना जाता है। जिस प्रकार मूर्ति-पूजक आचार्यों ने मूर्ति पूजा किस प्रकार करना, किस समय किस सामग्री से करना, इस विषय में ग्रन्थों के पृष्ठ के पृष्ठ भर डाले हैं, इसी प्रकार यदि गणधरोक्त उभयमान्य सूत्रों में भी कहीं बताया गया होता या केवल इतना भी कहा गया होता कि - 'श्रावकों को मूर्ति-पूजा करना चाहिये, मुनिओं को दर्शन यात्रा आदि करना व उस संबंधी उपदेश देना चाहिए, संघ निकलवाना नाहिए, आदि कथन होता तो ये लोग सर्वप्रथम ऐसा प्रमाण बड़े-बड़े Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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