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________________ श्री लोंकाशाह मत-समर्थन १५ ※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※ इसके सिवाय द्रौपदी के प्रतिमा पूजा के प्रकरण में णमोत्थुणं' और सूर्याभदेव की साक्षी के पाठ होने का भी कहा जाता है किन्तु यह पाठ मूल का होना सिद्ध नहीं हो सकता, कारण प्राचीन हस्त लिखित प्रतिओं में उपरोक्त णमोत्थुणं आदि पाठ का नहीं होना है, और आचार्य अभयदेव सूरि ने भी इस बात को स्वीकार कर वृत्ति में स्पष्ट कर दिया है। आचार्य अभयदेवजी का समय बारहवीं शताब्दी का है जब से १६ वीं और १७ वीं शताब्दी तक की प्रतिओं में प्रायः - "जिण पडिमाणं अच्चणं करेई" इतना ही पाठ मिलता है। स्वयं इस लेखक ने भी दिल्ली में श्रीमान् लाला मन्नूलालजी अग्रवाल के पास बहुत प्राचीन और जीर्ण अवस्था में ज्ञाताधर्मकथा की एक प्रति देखी, उसमें भी केवल उक्त पाठ ही है। इसी प्रकार किशनगढ़ में भी एक प्रति उक्त प्रकार के ही पाठ को पुष्ट करने वाली है। टीकाकार श्री अभयदेवजी भी मूल पाठ में केवल उक्त वाक्य को स्थान देकर बाकी के पाठ को वाचनान्तर में होना बताते हैं, देखिये - "जिणपडिमाणं अच्चणं करेइत्ति-एकस्यां वाचनाया मेतावदेव दृश्यते, वाचनान्तरेतु" ___ इस प्रकार मूल पाठ को इतना ही स्वीकार कर वाचनान्तर में अधिक पाठ होना माना है। इससे अनुमान होता है कि - द्रौपदी के अधिकार में णमोत्थुणं आदि अधिक पाठ इस जिन प्रतिमा को तीर्थंकर प्रतिमा सिद्ध करने के अभिप्राय से किसी शंकाशील प्रति लेखक ने बढ़ा दिया हो, और वह पाठ सर्व मान्य नहीं है यह स्पष्ट है। इतने विवेचन पर से यह अच्छी तरह सिद्ध हो गया कि लग्न प्रसंग पर निदान के प्रभाव से मिथ्यात्व वाली द्रौपदी से पूजी हुई जिन Only Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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