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सूर्याभ देव
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प्रतिमा तीर्थंकर की मूर्ति नहीं हो सकती। ऐसे प्रकरण पर से मूर्ति - पूजा को धार्मिक व उपादेय समझना अनुचित है। स्वयं टीकाकार भी द्रौपदी के इस पूजा प्रकरण में लिखते हैं कि -
'नच चरितानुवादवचनानि विधि निषेध साधकानि भवंति'
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ऐसी अवस्था में कथानक की ओट लेकर विधिमार्ग में प्रवृत्त होने वाले और व्यर्थ के आरंभ समारंभ कर आत्मा को अनर्थ दण्ड में डालने वाले बन्धु वास्तव में दया के पात्र हैं।
२. " सूर्याभ देव"
प्रश्न - सूर्याभदेव ने जिन प्रतिमा की पूजा की, ऐसा राजप्रश्नीय सूत्र में लिखा है, इससे मूर्ति - पूजा करना सिद्ध होता है, फिर आप क्यों नहीं मानते?
उत्तर - सूर्याभदेव के चरित्र की ओट लेकर मूर्ति पूजा में धर्म बताना मिथ्या है।
सूर्याभ की मूर्ति पूजा से तीर्थंकर की मूर्ति पूजा करना, ऐसा सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि -
१. तत्काल के उत्पन्न हुए सूर्याभदेव ने अपने सामानिक देव के कहने से परंपरा से चले आते हुए जीताचार का पालन किया है और जिन प्रतिमा के साथ-साथ नाग, भूत प्रतिमा जो कि उससे हल्की जाति के देवों की है उनकी और अन्य जड़ पदार्थ द्वार, शाखा, तोरण, बावड़ी, नागदन्ता आदि की पूजा की है। सूर्याभ को उस समय जीताचार के अनुसार वैसे भी काम करने थे जो उससे पहले वहां उत्पन्न होने वाले सभी देवों ने किये थे, उसका यह कार्य धर्म
बुद्धि से नहीं था ।
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