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________________ ८ ****** यद्यपि आत्मारामजी का यह आक्षेप वेदानुयायियों पर है किन्तु वे स्वयं अपने शब्दों का कितने अंशों में पालन करते थे, इसका निर्णय इन्हीं के बनाये 'हिंदी सम्यक्त्व शल्योद्धार' चतुर्थ वृत्ति के 'श्रावक सूत्र न पढ़े' शीर्षक प्रकरण से हो सकता है, इस प्रकरण में आप एकान्त निषेध करते हैं। कुछ भी हो पर स्वामीजी का कारण तो सत्य था सो 'अज्ञान तिमिर भास्कर' में बता ही दिया, उन्हीं के शब्दों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपने स्वार्थ पर कुठाराघात होने के कारण ही श्रावकों को सूत्र पठन में अनधिकारी घोषित किया गया है। प्रस्तावना **************************** १ 'श्रावक सूत्र पढ़ सकता है या नही?' यह विषय एक स्वतंत्र निबन्ध की आवश्यकता रखता है। यहां विषयान्तर के भय से उपेक्षा की जाती है। - इतना होते हुए भी जो इने गिने पढ़े लिखे आगम वाचक व्यक्ति हैं वे अपने गुरुओं के कथन को असत्य मानते हुए भी उनके प्रभाव में आकर तथा दुराग्रह के कारण पकड़ी हुई हठ को छोड़ते नहीं हैं। पंडित बेचरदासजी जैसे तो विरले ही होंगे जो इस विषय में गुरुओं की परवाह नहीं करते हुए सूत्रों का अध्ययन - मनन करके मूर्ति पूजा विषयक सत्य हकीकत प्रकट कर अज्ञान निद्रा में सोई हुई जनता के समक्ष सिद्ध कर दिखाई उसका भाव यह है कि 66 " मूर्ति - पूजा आगम विरुद्ध है। इसके लिये तीर्थंकरों ने सूत्रों में कोई विधान नहीं किया। यह कल्पित पद्धति है । " देखो - 'जैन साहित्यमां विकार थवा थी थयेली हानि' या हिंदी में 'जैन साहित्य में विकार' । . इस सत्य कथन का दण्ड भी पंडितजी को भोगना पड़ा । मूर्ति - पूजक समाज ने आपका बहिष्कार कर दिया, शाब्दिक बाण वर्षा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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