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श्री लोकाशाह मत-समर्थन
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समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवताए उवत्तारो भवंति तंजहा महड्डिएसु महज्जुइएसु जाव महासुखेसु सेसं तं चेव जाव एस ठाणे आयरिए जाव एगंतसम्म साहू।
भावार्थ - इस मनुष्य लोक में पूर्व आदि दिशाओं में कोई मनुष्य ऐसे होते हैं जो अल्प इच्छा वाले, अल्प आरम्भ करने वाले और अल्प परिग्रह रखने वाले होते हैं। वे धर्माचरण करने वाले, धर्म की अनुज्ञा देने वाले और धर्म से ही जीवन निर्वाह करते हुए अपना समय व्यतीत करते हैं वे सुशील सुन्दरव्रतधारी तथा सुख से प्रसन्न करने योग्य और सज्जन होते हैं। वे किसी स्थूल प्राणातिपात से जीवनभर निवृत्त रहते हैं और किसी सूक्ष्म प्रातिपात से निवृत्त नहीं रहते हैं। दूसरे जो कर्म सावद्य और अज्ञान को उत्पन्न करने वाले अन्य प्राणियों को ताप देने वाले जगत् में किए जाते हैं उनमें से कई कर्मों से वे निवृत्त नहीं होते हैं। इस मिश्र स्थान में रहने वाले श्रमणोपासक यानी श्रावक होते हैं। वे श्रावक जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष के ज्ञाता होते हैं। वे श्रावक देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गन्धर्व, गरुड़ और महासर्प आदि देवों की सहायता की इच्छा नहीं करते हैं तथा देवगण भी निर्ग्रन्थ प्रवचन से इन्हें विचलित करने में समर्थ नहीं होते हैं। वे श्रावक निर्ग्रन्थ प्रवचन में शंकारहित
और दूसरे दर्शन की आकांक्षा से रहित होते हैं। वे इस प्रवचन के फल में संदेह रहति होते हैं। वे सूत्रार्थ के ज्ञाता तथा उसे ग्रहण किये हुए और गुरु से पूछ कर निर्णय किये हुए होते हैं। वे सूत्रार्थ को निश्चय किए हुए और समझे हुए एवं उसके प्रति हड्डी और मज्जा में
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