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________________ प्रस्तावना 染紫米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米 .......... *********** भी अनुराग से रञ्जित होते हैं। वे श्रावक कहते हैं कि - "यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ है शेष सब अनर्थ हैं' वे विशाल और निर्मल मन वाले होते हैं। दान देने के लिए उसके घर के द्वार सदा खुले रहते हैं। वे श्रावक यदि राजा के अन्तःपुर में चले जाय या किसी दूसरे के घर में प्रवेश करे तो किसी को अप्रीति उत्पन्न नहीं होती थी अर्थात् वे सब के लिए विश्वास पात्र होते हैं। वे चतुर्दशी, अष्टमी और पूर्णिमा आदि पर्व तिथियों में उपवास सहित प्रतिपूर्ण पौषध करते हुए तथा श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, कम्बल, पादपोंच्छन, औषध, भेषज, पीठ, फलक, शय्या और तृण आदि देते हुए एवं इच्छानुसार ग्रहण किए हुए शील, गुणव्रत, त्याग प्रत्याख्यान पौषध और उपवास के द्वारा अपनी आत्मा को भावित (सुगन्धित) करते हुए जीवन व्यतीत करते हैं। वे इस प्रकार आचरण करते हुए बहुत वर्षों तक श्रावक के व्रत का पालन करते हैं। श्रावक के व्रत का पालन करके वे रोग आदि की बाधा उत्पन्न होने पर या न होने पर बहुत काल तक अनशन यानी संथारा ग्रहण करते हैं। वे बहुत काल का अनशन करके संथारे को पूर्ण करते हैं। वे संथारे को पूर्ण करके अपने पाप की आलोचना तथा प्रतिक्रमण कर समाधि को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार वे काल के अवसर में काल (मृत्यु) को प्राप्त कर विशिष्ट देवलोक में देवता होते हैं। वे महाऋद्धि वाले महा द्युति वाले तथा महासुख वाले देवलोक में देवता होते हैं। __यह स्थान आर्य तथा एकान्त सम्यक् और उत्तम है। इस मिश्र स्थान का स्वामी अविरति के हिसाब से बाल और विरति की अपेक्षा से पण्डित तथा अविरति और विरति दोनों की अपेक्षा से बाल पण्डित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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