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१४६ क्या बत्तीस मूल सूत्र के बाहर का साहित्य मान्य है? ****************************************** की महिमा भी खूब भर पेट कर डाली है, अन्य को शिक्षा देने में कुशल ऐसे श्री विजयानंदजी ने स्वयं 'अज्ञानतिमिरं भास्कर' नामक ग्रन्थ के पृ० १८ में 'तीर्थों का महात्म्य सो टंकसाल है' शीर्षक से स्पष्ट लिखते हैं कि -
"नदी, गाम, तालाब, पर्वत, भूमि इत्यादिक जो वेदों में नहीं हैं तिनके महात्म्य लिखने लगे तिनकी कथा जैसी-जैसी पुरानी होती गई तैसी-तैसी प्रमाणिक होती गई और फल भी देने लगी........ यह टंकसाल अब भी जारी है।"
श्री विजयानंद सूरि के उक्त शब्द शत्रुजय गिरनार आदि पहाड़ों के विषय में भी अक्षरशः लागू होते हैं, क्योंकि इनके महात्म्य आदि के ग्रन्थ कथाएं तथा मान्यता सभी आगम विरुद्ध होने से मन कल्पित पाखण्ड और अन्ध विश्वास से ओत प्रोत है और साथ ही स्वार्थी के स्वार्थ साधन का सुलभमार्ग भी।
इसके सिवाय इन लोगों ने स्वार्थ और मान्यता में कुठाराघात होने के भय से एक नया मार्ग और भी निकाला है वो यह है कि जिस ग्रंथ से अपने माने हुए पंथ को बाधा पहुँचती हो, उसके अस्तित्व एवं मान्यता से भी इन्कार कर देना, जैसे कि -
गत वर्ष (वि. सं. १९६२) लघु शतावधानी मु० श्रीमान् सौभाग्यचन्द्र जी (संतबाल जी) की 'जैन प्रकाश' पत्र में 'धर्म प्राण लोकाशाह' नामक ऐतिहासिक व भाव-पूर्ण लेखमाला प्रकाशित हुई, उसमें लेखक ने मूर्ति-पूजा यह धर्म का अंग नहीं है इसकी सिद्धि करने को श्रीमद् भद्रबाहु स्वामी रचित व्यवहार सूत्र की चूलिका के पांचवें स्वप्न फल का प्रमाण दिया, जिसके प्रकट होते ही मूर्ति-पूजकों के गुरु पं० न्यायविजयजी महाराज एक दम आपे से
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