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१४४ क्या बत्तीस मूल सूत्र के बाहर का साहित्य मान्य है? *********************************************
(२) सूत्रकृतांग, उपासकदशांग आदि की टीका में भी वृत्तिकारों ने मूर्ति पूजा के रंग में रंग कर सर्वज्ञ नहीं होते हुए भी सैंकड़ों ही नहीं, हजारों वर्ष पहले की बात सर्वज्ञ कथित आगमों से भी अधिक टीकाओं में लिख डाली।
(३) कल्पसूत्र के मूल में साधुओं के चातुर्मास करने योग्य क्षेत्र में १३ तेरह प्रकार की सुविधा देखने की गणना की गई है, उनमें मंदिर का नाम तक भी नहीं है, किन्तु टीकाकार महोदय ने मूल से बढ़कर चौदहवां जिन मन्दिर की सुविधा का वचन भी लिख मारा है।
(४) आवश्यक नियुक्ति में भरतेश्वर चक्रवर्ती ने अष्टापद पर श्री ऋषभदेव स्वामी और भविष्य के अन्य २३ तीर्थंकरों के मन्दिर मूर्ति बनवाये, ऐसा वचन बिना ही मूल के लिख डाला है।
(५) उत्तराध्ययन की नियुक्ति में श्री गौतम स्वामी ने साक्षात् प्रभु को छोड़कर अष्टापद पहाड़ पर सूर्य किरण पकड़ कर चढ़े, ऐसा बिना किसी मूलाधार के ही लिख दिया है।
(६) आवश्यक नियुक्तिकार ने श्रावकों के मन्दिर बनवाने पूजा करने आदि विषय में जो अड्गे लगाये हैं, ये सब बिना मूल के ही झाड़ पैदा करने बराबर हैं। .
इस विषय में और भी बहुत लिखा जा सकता है किन्तु ग्रंथ बढ़ जाने के भय से अधिक नहीं लिख कर केवल मूर्ति पूजक समाज के विद्वान् पं० बेचरदास जी दोशी रचित 'जैन साहित्य मां विकार थवाथी थयेली हानि' नामक पुस्तक के पृ० १-३ का अवतरण दिया जाता है, पंडित जी इन टीकाकारों के विषय में क्या लिखते हैं, जरा ध्यान पूर्वक उनके हृदयोद्वारों को पढ़िये।
"मारुं मानवं छेके कोई पण टीकाकारे मूलना आशय न मूलना
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