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________________ श्री लोकाशाह मत-समर्थन १४३ *******************冬***************** टीका, भाष्यादि में विपरीतता कर देने के दुःख से दुःखित हो स्वयं विजयानंदसूरिजी जैन तत्त्वादर्श पृ० ३५ में लिखते हैं कि - "अनेक तरह के भाष्य, टीका, दीपिका, रच कर अर्थों की गड़बड़ कर दीनी सो अब 'ताई करते ही चले जाते हैं।" यद्यपि श्री विजयानंदजी का उक्त आक्षेप वेदानुयायिओं पर है किन्तु यही दशा इन मूर्तिपूजक आचार्यों से रचित टीका नियुक्ति भाष्य आदि का भी है, उनमें भी कर्ताओं ने अपनी करतूत चलाने में कसर नहीं रखी है, जबकि स्वयं विजयानंदजी ने मूल में प्रक्षेप करते कुछ भी संकोच नहीं किया और कई स्थानों पर अर्थों के अनर्थ कर दिये, जिनके कुछ प्रमाण पहले दिये जा चुके हैं, तब टीका भाष्यादि में गड़बड़ी करने में तो भय ही कौनसा है? जैसी चाहें वैसी व्याख्या कर दें। श्री विजयानंदजी का पूर्वोक्त कथन पूर्ण रूपेण इनकी समाज पर चरितार्थ होता है। श्री विजयानंदसूरि जैन तत्त्वादर्श पृ० ३१२ पर लिखते हैं कि - "प्रभावक चरित्र में लिखा है कि - सर्व शास्त्रों की टीका लिखी थी वो सर्व विच्छेद हो गई।" उक्त कथन पर से यह तो सिद्ध हो गया कि - प्राचीन टीकाएं जो थी वो विच्छेद-नष्ट हो चुकी और अब जो भी टीकाएं आदि हैं वे प्रायः नूतन टीकाकारों के मत पक्ष में रंगी हुई हैं और अनेक स्थलों पर मूलाशय विरुद्ध मनमानी व्याख्या भी की गई है, इन मन्दिर मूर्तियों के लिए ही कितनी मनमानी की गई है, इसके कुछ नमूने देखिये - (१) आचारांग की नियुक्ति में तीर्थ यात्रा करने का बिना मूल के लिख दिया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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