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________________ १४२ क्या बत्तीस मूल सूत्र के बाहर का साहित्य मान्य है? ************************************** उक्त पाठ भी स्वेच्छा से घटा बढ़ा कर दिया गया है, इस प्रकार का पाठ कोई प्रश्नव्याकरण में नहीं है और न यह मन्दिर मूर्ति से ही सम्बन्ध रखता है, इस प्रकार मन माना अंश इधर उधर से लेकर मिला देना सरासर अनर्थ है। (११) श्री विजयानंद सूरिज़ी "जैनतत्त्वादर्श' पृ० २३१ में लिखते हैं कि - "श्रावकों जिन मन्दिर बनाने से, जिन पूजा करने से सधर्मिवत्सल करने से, तीर्थयात्रा जाने से, रथोत्सव, अठाई उत्सव, प्रतिज्ञा, अरु अंजन शलाका करने से तथा भगवान् के सन्मुख जाने से, गुरु के सन्मुख जाने से, इत्यादि कर्तव्य से, जो हिंसा होवे सो सर्व द्रव्य हिंसा है, परन्तु भाव हिंसा नहीं, इसका फल अल्प पाप अरु बहुत निर्जरा है, यह भगवती सूत्र में लिखा है, यह हिंसा साधु आदि करते हैं।" इस प्रकार श्री विजयानंदसूरि ने एकदम मिथ्या ही गप्प मार दी है, भगवती सूत्र में उक्त प्रकार से कहीं भी नहीं लिखा है, हाँ, शायद सूरिजी ने अपनी कोई स्वतंत्र प्राइवेट भगवती बनाली हो और उसमें ऐसा लिख कर फिर दूसरों को इस प्रकार बताते रहे हों तो यह दूसरी बात है? इस प्रकार मन्दिर व मूर्ति के लिए जिन के सूरिवर्य भी अर्थ के अनर्थ और मिथ्या गप्पें लगाते रहें, वहाँ सत्य शोधन की तो बात ही कहां रहती है? इस प्रकार अनेक स्थलों पर मनमानी की गई है, यदि कोई इस विषय की खोज करने को बैठे तो सहज में एक बृहत् ग्रन्थ बन सकता है। अतएव इस विषय को यहीं पूर्ण कर इनकी टीका नियुक्ति आदि की विपरीतता के भी कुछ प्रमाण दिखाये जाते हैं - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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