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१३६ क्या बत्तीस मूल सूत्र के बाहर का साहित्य मान्य है? **************************************************
ते चम्पा वर्णनमां पाठान्तर छे के - अरिहंत चेइय जण-वई-विसण्णिविट्ठ बहुला-सूत्र १
अर्थ - चम्पापुरी अरिहंत चैत्यो, मानवीओ अने मुनिओ ना सन्निवेशो वड़े विशाल छे। ..
इस प्रकार श्री दर्शनविजय जी ने मूल पाठ और पाठान्तर बताया है, हमारे विचार से तो यह पाठान्तर भी इच्छापूर्वक बनाकर लगाया है।
श्रीमान् दर्शनविजयजी भी मूल पाठ में से एक शब्द खा गये और पाठान्तर का अर्थ भी मनमाना कर दिया। देखिये शुद्ध मूल पाठ___ आयारवन्त चेइय जुवई' विविह सण्णिविट्ठ बहुला।
इस छोटे से पाठ में से 'जुवई' शब्द श्रीमान् दर्शनविजय जी ने . क्यों उड़ाया? यह तो वे ही जानें, हमें तो यही विश्वास होता है कियह शब्द जानबूझ कर ही उड़ाया गया है क्योंकि इस शब्द का टीकाकार ने “युवती वेश्या" अर्थ किया है जो श्री दर्शन विजय जी को चैत्य के साथ होने से कुछ बुरा मालूम दिया होगा। किन्तु इस प्रकार मनमाना फेरफार करना, यह तो प्रत्यक्ष में सैद्धान्तिक कमजोरी सिद्ध करता है।
यहाँ एक यह भी विचारणीय बात है कि - इनके आचार्यों को जब ‘आयारवंत चेइय' शब्द से जिन मन्दिर-मूर्ति अर्थ इष्ट नहीं था तभी तो इन लोगों ने पाठान्तर के बहाने यह नूतन पाठ बढ़ाया है। इससे यह सिद्ध हुआ कि - चैत्य शब्द का अर्थ जिन मन्दिर-मूर्ति नहीं होकर यक्षालय भी है।
(६) ज्ञाताधर्म कथांग में द्रौपदी के सोलहवें अध्ययन में - णमोत्थुणं' आदि पाठ अधिक बढ़ाया हुआ है।
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