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श्री लोकाशाह मत-समर्थन १३५ ************ ************中********** नहीं देखा है' इस प्रकार प्रत्यक्ष मृषावाद बोलने का विधान करते हैं किन्तु इन्हीं के मतानुयायी श्री पार्श्वचन्द्रजी बाबू के आचारांग में भाषानुवाद करते हुए टीकाकार के इस प्रकार झूठ बोलने के अर्थ को असत्य बताकर वहां मौन रहने का अर्थ करते हैं।
(३) उक्त सूरिजी ने उसी सम्यक्त्व शल्योद्धार पृ० १८४ में श्री भगवती सूत्र शतक ८ उद्देशा १ का पाठ इस प्रकार लिखा है -
- "मणसच्च जोगपरिणया वय मोस जोगपरिणया'और इस पाठ का अर्थ करते हैं कि - "मृगपृच्छादिक में मन में तो सत्य है और वचन में मृषा है।"
उपरोक्त पाठ और अर्थ दोनों सत्य है। भगवती सूत्र के उक्त स्थल पर इस प्रकार का पाठ है ही नहीं, फिर यह नूतन पाठ और इच्छित अर्थ कहां से लिया गया? यह विजयानंदजी ही जानें।
(४) उपासकदशांग के आनन्दाधिकार में - 'अण्णउत्थिय परिग्गहियाणि' के आगे “अरिहंत" शब्द अधिक बढ़ा दिया गया है।
(५) उववाई सूत्र में चम्पा नगरी के वर्णन में - 'बहुला अरिहंत चेइयाई पाठ बढ़ा दिया, कितने ही मूर्तिपूजक विद्वान तो इसे पाठान्तर मानते हैं और कुछ लोग पाठान्तर मानने से भी इन्कार करते हैं। अभी थोड़े दिन पहले इन लोगों की 'आक्षेप निवारिणी समिति' की ओर से 'जैन सत्य प्रकाश' नामक मासिक पत्र प्रकट हुआ है, उसके प्रारम्भ के तीसरे अंक पृ० ७६ में 'जिन मन्दिर' शीर्षक लेख में श्री दर्शनविजयजी, उववाई का पाठ इस प्रकार देते हैं
आयारवंत चेइय विविह सन्निविट्ठ बहुला-सूत्र १
और अर्थ करते हैं कि - 'चम्पा नगरी सुन्दर चैत्यों तथा सुन्दर विविधता वाला सन्निवेशोथी युक्त छ।'
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