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१३४ क्या बत्तीस मूल सूत्र के बाहर का साहित्य मान्य है?
" से भिक्खु वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरासे जंघा संतारिमे उदए सिया से पुव्वामेव ससीसोवारियं पोदय पमज्जेज्जासे पुव्वामेव पमज्जित्ता जाव एगं पादं जले किच्चा एगं पादं थले किच्चा तओ संजयामेव जंघा संतारिमे उदगे आहारियं रिएज्जा" ।
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प्रिय पाठक महोदयो! जरा विजयानन्दजी के दिये हुए पाठ से इस पाठ का मिलान करिये, और फिर हिसाब लगाइये कि न्यायांभोनिधि, कलिकाल सर्वज्ञ समान कहलाने वाले श्री विजयानन्द सूरिजी ने इस छोटे से पाठ में से कितने शब्द चुराये हैं? एक छोटे से पाठ को इस प्रकार बिगाड़कर उसमें से अनेक शब्दों को उड़ाने वाले साधारण अक्षर या मात्रादि न्यूनाधिक करने में क्या देर करते होंगे? और एक आवश्यक व अनिवार्य कार्य की यतना पूर्वक करने की विधि को हिंसा करने की आज्ञा बताकर कितना महान् अनर्थ करते हैं?
जबकि-साधारण मात्रा या अनुस्वार तक को न्यूनाधिक करने वाला अनन्त संसारी कहा जाता है, तब पाठ के पाठ बिगाड़ देने वाले यदि अपनी करणी के फल भोग रहे हों तो आश्चर्य ही क्या है ?
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(२) उक्त महात्मा की दूसरी बहादुरी देखिये - सम्यक्त्व शल्योद्धार चतुर्थावृत्ति पृ० १८४ में आचारांग सूत्र का पाठ इस प्रकार दिया है -
'जाणं वा तो जाणं वदेज्जा'
अब रायधनपतिसिंह बहादुर के आचारांग का उक्त पाठ देखिए'जाणं वा णो जाणं ति वदेज्जा'
उक्त शुद्ध पाठ को बिगाड़कर मनः कल्पित अर्थ करते हैं । कि
- 'जानता होवे तो भी कह देवे कि मैं नहीं जानता हूं, अर्थात् मैंने
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