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श्री लोकाशाह मत-समर्थन
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यहां हम इतना तो अवश्य कह सकते हैं कि इन शुद्धिकर्ता महोदय ने मूल में पाठान्तर आदि के रूप से धूल तो मिला ही दी होगी, क्योंकि शुद्धिकर्ता श्री विजयदानसूरिजी श्रीमान् धर्मप्राण लोकाशाह के बाद ही हुए हैं। उधर श्रीमान् लोकाशाह ने आगमोक्त शुद्ध जैनत्व का प्रचार कर मूर्ति पूजा के विरुद्ध बुलंद आवाज उठाई, मूर्ति-पूजा को सर्वज्ञ अभिप्राय रहित घोषित की और शिथिल हुए साधु समुदाय की भी खबर ली, ऐसी हालत में यदि आगमों को असली हालत में ही रहने दिया जाय तब तो मूर्ति-पूजा का अस्तित्व ही खतरे में था, क्योंकि इन्हीं आगमों के बल पर तो लोंकाशाह ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया था? इसलिये आगमों में इच्छित परिवर्तन करना विजयदान सूरिजी को सर्वप्रथम आवश्यक मालूम हुआ हो, बस कर डाली मनमानी और इस प्रकार आगमों के नाम से जनता को अपने ही जाल में फंसाये रखने में भी सुभीता ही रहा। आगे की बात छोड़ दीजिये, अभी इन विजयानन्द सूरिजी ने भी पाठ परिवर्तन करने में कुछ कमी नहीं रक्खी, 'सम्यक्त्व शल्योद्धार' हिंदी की चौथी आवृत्ति के पृ० १८६ में श्री आचारांग सूत्र का निम्न पाठ दिया है, देखिये,
(१) 'भिक्खु गामाणुगामं दूइज्जमाणे अन्तरासे नई आगच्छेज्ज एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा एवं एहं संतरई'। • इस प्रकार पाठ लिखकर विशेष में लिखते हैं कि - 'यहां भगवंत ने हिंसा करने की आज्ञा क्यों दीनी?'
उक्त मूल पाठ में श्री विजयानन्दजी ने कई शब्दों को उड़ा कर कैसा निकृष्ट कार्य किया है, यह बताने के लिए मूर्ति पूजक समाज के रायधनपतिसिंह बहादुर के सम्वत् १९३६ के छपाये हुए आचारांग सूत्र दूसरे श्रुतस्कंध पृ० १४४ में का यही पाठ दिया जाता है -
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