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________________ १३२ क्या बत्तीस मूल सूत्र के बाहर का साहित्य मान्य है? *********本*****容容容容李李容容容本************* इसीलिए इनके बनाये हुए ग्रन्थ प्रामाणिक नहीं माने जाते और ऐसे ग्रन्थों को अप्रमाणित घोषित कर देना ही साधुमार्गियों की न्यायपरता है। ___ इसी प्रकार ३२ सूत्र के बाहर जो सूत्र कहे जाते हैं और जिनका नामोल्लेख नन्दी सूत्र में है उनमें भी महामना (?) महाशयों ने अपनी चतुराई लगा कर असलियत बिगाड़ दी, अतएव उनके भी बाधक अंश को छोड़ कर आगम सम्मत अंश को हम मान्य करते हैं। जिस महानिशीथ का नाम नंदी सूत्र में है उसमें भी बहुत परिवर्तन हो गया है, ऐसा उल्लेख स्वयं महानिशीथ में भी है और मूर्ति मंडन प्रश्नोत्तर कर्ता भी लिखते हैं कि '(महानिशीथनो) पाछलनो भाग लोप थई जवाथी जेटलो मली आव्यो तेटलो जिनाज्ञा मुजब लखी दीर्छ।' इस प्रकार शुद्धि और जिर्णोद्धार के नाम से इन लोगों ने इच्छित अंश न खंडित या अखंडित सूत्रों में मिला दिया है। अन्य सूत्रों को जाने दीजिये, अंगोपांग में भी इन महानुभावों ने अनेक स्थानों पर न्यूनाधिक कर दिया है और अर्थ का अनर्थ भी। इसके सिवाय भावों को तोड़ मरोड़ने में तो कमी रखी ही नहीं है। अंगोपांगादि के मूल के कल्पित पाठं मिलाने के कुछ प्रमाण देने के पूर्व श्री विजयदानसूरिजी विषयक जैन तत्त्वादर्श पृ० ५८५ का निम्न अवतरण दिया जाता है - 'जिन्होंने एकादशांग सूत्र अनेक बार शुद्ध करे'। बन्धुओ! यह बार बार अंग शुद्धि कैसी? और वह भी श्री धर्मप्राण लोंकाशाह के थोड़े ही वर्षों बाद श्री विजयदानसूरिजी ने की! इसमें अवश्य कुछ रहस्य है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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