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श्री लोकाशाह मत - समर्थन
ने महावीर चरित्र में तो यहाँ तक लिख दिया कि " इन्द्रशर्मा ब्राह्मण ने साक्षात् प्रभु की भी सचित्त फूलों से पूजा की थी" जो अनन्त चारित्रवान् प्रभु सचित्त पुष्प, बीज आदि का स्पर्श भी नहीं करते उनके लिए ऐसा कहना असत्य नहीं तो क्या है ? सूत्रों में अनेक स्थानों पर एक सम्राट से लेकर सामान्यजन समुदाय तक के प्रभु भक्ति का अर्थात् वन्दन नमन सेवा करने का कथन मिलता है, किन्तु किसी भी स्थान पर किसी अन्य सचित्त या अचित्त पदार्थ से पूजा करने का उल्लेख नाम मात्र भी नहीं है, फिर श्रीमद् हेमचन्द्रजी ने जो कि सं० १७०० वर्ष पीछे हुए हैं, सचित्त फूलों से पूजने का हाल किस विशिष्ट ज्ञान से जान लिया । खैर ।
अब पाठक इनके पहाड़ों की प्रशंसा दर्शक वचनों की भी कुछ हालत देखें- शत्रुंजय पर्वत की महत्ता दिखाते हुए लिखा है कि"जं लहइ अन्न तित्थे, उग्गेण तवेण बंभचरेण ।
तं लहइ पयत्तेण सेत्तुं गिरिम्मि निवसन्तो ॥ " अर्थात् - जो फल अन्य तीर्थों में उत्कृष्ट तप और ब्रह्मचर्य से होता है, वही फल उद्यम करके शत्रुंजय में निवास करने से होता है।
बस चाहिये ही क्या ? फिर तप ब्रह्मचर्य पालन कर काय कष्ट क्यों किया जाता है ? जब भयंकर कष्ट सहन करने का भी फल मात्र शत्रुंजय पर्वत पर निवास करने समान ही हो तो फिर महान् तपश्चर्या कर व्यर्थ शरीर और इन्द्रियों को कष्ट क्यों देना चाहिये ? इस विधान से तो साधु होकर संयम पालन करने की भी आवश्यकता नहीं रहती और देखिये -
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जं कोडी पुन्नं कामिय- आहार भोइ आजेउ ।
जं लहइ तत्थ पुन्नं, एगो वासेण सेतुंजे ॥
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