________________
क्या बत्तीस मूल सूत्र के बाहर का साहित्य मान्य है ?
***
अर्थात् - करोडों मनुष्यों को भोजन कराने का जितना पुण्य होता है उतना ही पुण्य शत्रुंजय पर मात्र एक उपवास करने से ही हो जाता है।
१२८
हाँ, है तो बड़े मतलब की बात पैसे बचे और लाखों रुपये के खर्च के बराबर पुण्य भी मिल गया, फिर व्यर्थ ही द्रव्य व्यय कर भूखों को अन्नदान देने की आवश्यकता ही क्या है ? ऐसा सस्ता सौदा भी नहीं कर सके वैसा मूर्ख कौन है ? भाग्य फूटे बेचारे दीन दुःखियों के कि जिनके पेट पर यह फल विधान की छरी फिरी। आगे बढ़िये - अठावयं समेए पावा चंपाई उज्जंत नगेय । वंदित्ता पुन्नं फलं, सयगुणं तंपि पुंडरिए ||
अर्थात् - अष्टापद जहाँ श्री ऋषभदेवजी, सम्मेदशिखर जहाँ बीस तीर्थंकर, पावापुरी में श्री महावीर प्रभु, चम्पा में श्री वासुपूज्यजी, गिरनार जहाँ श्री नेमिनाथजी मोक्ष पधारे, इन सभी तीर्थों के वंदन का जो पुण्य फल होता है उससे भी सौ गुणा अधिक फल पुंडरिकगिरि के दर्शन से होता है।
घर और व्यापार के कार्यों को छोड़ कर दूर दूर के अन्यतीर्थों में भटकने वाले शायद मूर्ख ही हैं, जो केवल एक बार शत्रुंजय के दर्शन कर अन्य तीर्थों से सौगुणा अधिक लाभ प्राप्त नहीं कर लेते? इस विधान से गुजरात, काठियावाड़, महाराष्ट्र, मालवा आदि देशों के रहने वाले मूर्त्तिपूजक भाइयों के लिए तो पूरे पौ बारह है, इन्हें अब अपने समय और द्रव्य का विशेष व्यय कर बिलकुल थोड़े लाभ के लिए दूर के तीर्थों में जाने की जरूरत नहीं रही, थोड़े समय और द्रव्य खर्च से अपने पास ही के शत्रुंजय पर एक बार जाकर इस विधान के अनुसार महान लाभ प्राप्त कर लेना चाहिये ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org