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१२४ क्या बत्तीस मूल सूत्र के बाहर का साहित्य मान्य है? **********************************************
___ "जे दिशानी पोतानी नासिका बहेती होय ते तरफ कामिनी ने आसन ऊपर अथवा शैय्या ऊपर बेसाड़े छे, आम करवाथी ते उन्मत्त कामिनिओ तत्कालमांज वशीभूत थइ जाय छे।" (पृष्ठ १६०)
१४. जे दिवसे भारे भोजन न कर्यु होय, तृषा क्षुधादिनी वेदना अंगमां लवलेश पण न होय, स्नानादिक थी परवारी अंगे चंदन केसर आदि नुं विलेपन कर्यु होय, अने हृदय मां प्रीति तथा स्नेहनी उर्मीओ उछलती होय तोज ते स्त्री ने भोगवी शके छे' (पृष्ठ १६६)
इस विषय में जैनाचार्य जी ने और भी बहुत लिखा है, किन्तु यहाँ इतना ही पर्याप्त है, अब जरा इनके कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य जी का भी वशीकरण मंत्र देख लीजिये। आप योग शास्त्र के पांचवें प्रकाश के २४२ वें श्लोक में बताते हैं कि - आसने शयने वापि, पूर्णांगे विनिवेशिताः। वशी भवंति कामिन्यो, न कार्मण मतः परम ॥ २४२॥
___ अर्थात् - आसन या शयन के समय पूर्णांग की ओर बिठाई हुई स्त्रिये स्वाधीन हो जाती हैं, इसके सिवाय दूसरा कोई कार्मण नहीं।
पाठको! क्या ऐसा लेख जैन मुनि का हो सकता है ? यदि आपको ऐसी शंका हो तो मेरे निर्देश किये हुए स्थलों पर मिलान करा लीजिये। आपको विश्वास हो जायगा कि जो कथन काम शास्त्र का होना चाहिए वह जैन शास्त्र में है और वह भी जैन के कलिकाल सर्वज्ञ महान् आचार्य कहे जाने वालों के पवित्र करकमलों से लिखा जाय, यह पानी में आग और अमृत में हलाहल विष के समान है, अब आप ही बतलाइये कि इस प्रकार के धर्मघातक आरंभ और विषय वर्द्धक पोथों को किस प्रकार धर्म ग्रन्थ मानें ?
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